and this is a way of expression... reflection of the world inside us... exploration of the world, we dwell in...
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Saturday, February 23, 2013

मेरी डायरी में दर्ज एक प्रार्थना...

(डायरी के पन्नों से- 26-12-2010)

मेरे पास कोई प्रार्थना नहीं है। तुम्हारी मर्ज़ी ...  ख़ाक में मिला दो चाहो तो। मैं साधन हूँ तुम्हारी मर्ज़ी का, मेरे पास तो कोई साधन नहीं है तुम्हारी मर्ज़ी के खिलाफ़ जाने का। तुम ही तो प्रतीक हो मेरे सामर्थ्य से परे मेरे योग-क्षेम के निर्धारण का ...

ईश्वर के आवंटन की दूकान में खड़ा था। पुरोहित कहता है- आँखें बन्द  करके, हाथ जोड़ सच्चे मन से जो भी मनोकामना कहोगे, यहाँ पूरी होगी। मैं आँखें बन्द कर अपने अन्दर के समन्दर में कई गोते लगा आया, बहुत ढूँढा बहुत खोजा, लेकिन एक अदद मनोकामना नहीं मिली। बाइबिलकार के शब्द याद आये - जो ईश्वर है, उसे क्या पता नहीं [मत्ती 6:8]। क्या माँगू जो तुम ईश्वर ही हो। तुम से माँगा जा सके ऐसा है ही क्या, या फिर तुम्हारे पास है भी क्या देने लायक। अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़ जा कर तो तुम खुद कुछ नहीं कर सकते। तुम ही नियम और तुम ही अपवाद, तुम ही स्तिथि और तुम ही गतिमान, एकमेव प्रतीक तुम ही कैसे हो... । मेरे अज्ञान और मेरे 'सीमित के निरपेक्ष' के एक नाम- तुम्हारे बंधे हाथ कभी खुल सकें, यही प्रार्थना है...

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